1857 का विद्रोह

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हुए आंदोलनों में 1857 की क्रांति का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 के विद्रोह को ही माना जाता है।

विद्रोह का तात्कालिक कारण

             1857 कै विद्रोह की शुरुआत के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सैनिकों पर अपनायी गयी नीतियां जिम्मेदार हैं।ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सैनिकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था।भारतीय सैनिक चाहे जितनी सेवा निष्ठा से ड्यूटी करते थे परन्तु उन्हें जमादार के पद से ऊपर न तो प्रोन्नत किया जाता था और न ही उनके वेतन,भत्ते आदि सुविधाएं ब्रिटिश सैनिकों के समान मिलते थे।भारतीय सैनिकों का वेतन उनके परिवार के पालनपोषण के लिए अपर्याप्त था इसलिए उन्हें अपने परिवार के जीवनयापन के लिए खेती-बाड़ी पर भी निर्भर रहना पड़ता था परंतु उन्हें भू-लगान में किसी भी प्रकार की छूट नहीं दी जाती थी। जिससे उनमें असंतोष व्याप्त था अर्थात भारतीय सैनिक एक प्रकार के असंतुष्ट 'वर्दीधारी किसान' ही थे।भारतीय सैनिक सभी प्रकार के भेदभाव एवं असमानताओं को झेलते हुए भी अपनी सेवा निष्ठा भाव से दे रहे थे।परंतु 1856 ई० में लार्ड कैनिंग की भारत के नये गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्ति हुई।उसने The General Service Enlistment Act नामक् एक्ट पारित किया इसमें यह घोषणा की गयी कि भारतीय सैनिकों को समुद्र पार करके विदेश भी जाना होगा । भारतीय सैनिक इस एक्ट का विरोध कर रहे थे कयोंकि हिन्दू धर्म में समुद्र यात्रा करना पाप माना जाता था।उसी समय सैनिकों को 'एन्फील्ड' नामक नई रायफल दी गई जिसमें कारतूसों को मूहँ से खोलकर लगाया जाता था।कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता था। अत: हिन्दू एवं मुसलमान दोनों की धार्मिक भावनाएं आहत होने के कारण दोनों धर्मों के सैनिकों ने इसका विरोध किया। 29  मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी (पश्चिम बंगाल) में मंगल पांडेय नामक एक सैनिक ने बगावत कर दी तथा एक अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतार दिया। 6 अप्रैल 1857 को मंगल पांडेय को देशद्रोह के जुर्म में फांसी दे दी गई। जिसके परिणामस्वरूप सैनिकों में आक्रोश बढता गया। 6 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी के सैकड़ों सैनिकों द्वारा कारतूसों का विरोध करने पर उन्हें गिरफ्तार करके दस वर्ष की सजा सुनाई गई।विरोधस्वरूप 10 मई 1857  को क्रांति की शुरुआत मेरठ छावनी से हो गई।

क्रांति का संगठन, उद्येश्य एवं समय

   1857 की क्रांति के बारे में यह विचार प्रचलित है कि इसमें संगठन का अभाव था परन्तु वास्तव में यह एक संगठित विद्रोह था। केवल कुछ प्रांतों को छोड़कर सभी वर्ग व सभी छेत्रों के लोग इसमें सम्मिलित थे। इसका उद्येश्य भी स्पष्ट था कि अंग्रेजी शासन का अन्त करके स्वतंत्रता की प्राप्ति करनी है। विद्रोह के लिए 31 मई 1857 का समय निर्धारित किया गया था परन्तु सैनिकों द्वारा इसके समय से पूर्व शुरुआत किये जाने के कारण सभी छेत्रों में क्रांति की शुरुआत अलग-अलग समय पर हुई।जिस कारण ब्रिटिश शासन पर जो तगड़ा प्रहार किया जा सकता था उसमें अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पायी।

क्रांति की शुरुआत

           1857 की क्रांति के अंकुर बैरकपुर छावनी में मंगल पंके द्वारा फूटे। जब 29 मार्च 1857 को गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूसों के विरोध में मंगल पांडेय ने उत्पात मचाया तो उसे गिरफ्तार करने के लिए जो भी अधिकारी आगे आया उसे मंगल पांडेय ने मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडेय को देशद्रोह के जुर्म में फांसी की सजा दे दी गई। जिससे भारतीय सैनिकों में आक्रोश जागृत हो गया। 6.मई 1857 को मेरठ छावनी के सैनिकों द्वारा फिर से कारतूसों का विरोध किए जाने पर उनके हथियार जब्त करके उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा दस वर्ष की सजा सुनाई गई। इसे अन्य सैनिकों, जनता एवं महिलाओं ने अपमानजनक माना परिणामस्वरूप 10 मई 1957 को क्रांति की शुरुआत करते हुए जेलखानों को तोड़कर सभी कैदियों को मुक्त करा दिया गया तथा मेरठ की सफलता से उत्साहित होकर दिल्ली कूच कर दिया गया। दिल्ली पहुंचकर कर्नल रिप्ले की हत्या करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया गया तथा बुलंदशहर, अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर आदि में क्रांति की घोषणा कर दी गई।

धार्मिक स्वतंत्रता

 इस क्रांति की शुरुआत से लेकर अंत तक जैसी हिन्दू मुस्लिम एकता दिखाई दी वैसी एकता बाद के संघर्षों में कभी दिखाई नहीं दी क्योंकि कारतूसों पर गाय व सूअर दोनों की चर्बी का इस्तेमाल किया गया था जिससे दोनों धर्मों की भावनाएं आहत हुईं थीं तथा ब्रिटिश सरकार के शोषण से सभी वर्ग के लोग असंतुष्ट थे। सभी धर्म एवं वर्ग के लोगों ने इस आंदोलन में बढ चढकर हिस्सा लिया था 

विद्रोह के केन्द्र 

  1. दिल्ली     - जनरल बख्त खॉ
  2. कानपुर      - नाना साहब
  3. लखनऊ     - बेगम हजरत महल
  4. बरेली         - खान बहादुर
  5. बिहार        - कुँवर सिंह
  6. फैजाबाद    - मौलवी अहमदउल्लाह
  7. झांसी         - रानी लक्ष्मीबाई
  8. ग्वालियर     - तात्या टोपे
  9. गोरखपुर     - गजाधर सिंह
  10. फर्रूखाबाद - नवाब तफज्जुल हुसैन
  11. सुल्तानपुर   - शहीद हसन
  12. सम्भलपुर   - सुरेंद्र सांईं
  13. हरियाणा    - राव तुलाराम

क्रांति का दमन

क्रांति का विभीषण रूप देखते हुए ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक स्थानों पर क्रांतिकारियों का दमन किया गया। आम निर्दोष लोगों को फांसी पर चढाया गया।जनरल नील के नेतृत्व में बनारस और इलाहाबाद में खुलेआम कत्लेआम किया गया साथ ही साथ कूटनीतिक चाल चलकर बहादुरशाह को प्रलोभन देकर गिरफ्तार कर लिया गया तथा अम्बाला, फिरोजपुर,जलंधर में सैनिक नियमों का उल्लंघन करके क्रांतिकारियों को तोपों से जिन्दा उड़ा दिया गया। पंजाब प्रांत में यह अफवाह फैला दी गई कि बहादुरशाह ने फरमान जारी किया है कि क्रांति के बाद मुगल शासन स्थापित करके सभी हिन्दुओं एवं सिखों का कत्लेआम कर देगा। संचार के पर्याप्त साधन न होने के कारण सिखों को अफवाह पर विश्वास हो गया जिससे सिख अंग्रेजों के समर्थन में आ गये ।इस प्रकार विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों को बहुत मदद मिली यदि यह अफवाह न फैलती तो क्रांति की तस्वीर कुछ और ही होती इसके साथ-साथ गोरखा एवं मद्रास प्रांत ने भी अंग्रेजों का सहयोग किया। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी आसानी हुई क्योंकि क्रांति का प्रसार अलग-अलग स्थानोंं पर एक साथ नहीं हुआ यदि पूरे देश में एक साथ क्रांति का प्रसार होता तो इसे दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए टेढी खीर साबित होती।                                         
            इस प्रकार 1857 की क्रांति का तात्कालिक परिणाम तो इसकी विफलता के रुप में सामने आया परंतु इसके प्रभाव भारतीयों एवं ब्रिटिश साम्राज्य दोनों पर ही गहरे पड़े।भारतीयों का पहली बार यह समझ में आया कि अंग्रेज अपराजेय नहीं है यदि संगठित तरीक़े से लड़ा जाए तो उन्हें हराया जा सकता है। वहीं अंग्रेजों को भी समझ में आ गया कि प्रातीय शासकों के साथ मित्रता बनाये बिना शासन नहीं किया जा सकता इसलिए अंग्रेजों ने लार्ड डलहौजी के समय का 'व्यपगत का सिद्धांत' (Doctrine of laps) को त्याग कर स्थानीय शासकों से मित्रता अपनायी गयीं। ब्रिटिश कंपनी के शासन को समाप्त करके सीधे सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया।भारत सचिव की नियुक्ति करके भारत में ब्रिटिश प्रतिनिधि के रुप में वायसराय का पद स्थापित किया गया। इस प्रकार इस क्रांति के परिणाम दूरगामी हुए।

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