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मई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

स्वदेशी या बॉयकॉट आंदोलन की शुरुआत एवं कारण

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         स्वदेशी या बॉयकॉट आंदोलन की शुरुआत तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन (बंग-भंग) की घोषणा के विरोध में हुई। 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा हुई विरोधस्वरूप कृष्ण कुमार मित्र की 'संजीवनी' नामक पत्रिका में दिए गए सुझाव के तहत स्वदेशी वस्तुओं को अपनाया गया तथा विदेशी वस्तुओं की होली जलाकर विरोध प्रदर्शन किए गए।आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने संभाली।                      बंगाल विभाजन का वास्तविक उद्देश्य हिन्दू, मुस्लिमों को धर्म के आधार पर बां‌टना था। बंगाल का विभाजन इस प्रकार कर दिया गया था जिसमें पूर्वी हिस्सा मुस्लिम बहुल था तथा पश्चिमी हिस्से में हिन्दू आबादी अधिक रहती थी। दूसरा, बंगाल का विभाजन होने से बंगला भाषी लोग बंगाल में ही अल्पसंख्यक बन गए, क्योंकि वहां पर १ करोड़ ७० लाख लोग बंगाली बोलते थे जबकि हिन्दी व उड़िया बोलने वालों की संख्या ३ करोड़ ७० लाख थी। १६ अगस्त १९०५ को विभाजन लागू हुआ इस दिन को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया गया और रवींद्र नाथ टैगोर के सुझाव पर गंगा स्नान करके एक दूसरे को राखी बांधी गई, रक्षा बंध

कामागाटामारू प्रकरण

     कामागाटामारू प्रकरण इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि कामागाटामारू प्रकरण ने पंजाब में विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी थी। सिंगापुर में रहने वाले सरदार बाबा गुरदीप सिंह ने जापान के 'कामागाटामारू जहाज' को किराए पर लिया।इसमें रोजगार के इच्छुक भारतीयों को कनाडा ले जाया गया। इस जहाज में 351 पंजाबी सिख एवं 21 मुसलमानों को सिंगापुर से कनाडा के बैंकूवर ले जाया जा रहा था इन्हें कनाडा भेजने का उद्येश्य था कि ये लोग कनाडा में रोजगार प्राप्त करें तथा आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेंं परंतु जहाज के कनाडा पहुचंने से पहले ही प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गयी इस कारण यात्रियों को बंदरगाह पर उतरने नहीं दिया गया। मजबूरन जहाज को कलकत्ता के लिए रवाना किया गया। यह जहाज 27 सितंबर 1914 को कलकत्ता बंदरगाह पर पहुंचने पर ब्रिटिश सरकार को यह शक था कि जहाज में क्रांतिकारी भरे हुए हैं। अतः ब्रिटिश सरकार ने सभी यात्रियों को गिरफ्तार करके पंजाब भेजने का प्रयत्न किया परंतु यात्रियों एवं पुलिस में मुठभेड़ हो गयी जिसमें 22 लोग मारे गए। बाबा गुरदीप सिंह बचकर भाग निकले तथा बा

गदर आंदोलन

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                   गदर आंदोलन की शुरुआत, गदर दल के द्वारा 1 नवंबर 1913 को संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को शहर से हुई। इस आंदोलन का नेतृत्व लाला हरदयाल के द्वारा किया गया जिसमें रामचंद्र, बरकतउल्ला, हरनाम सिंह टुण्डीलट, सोहन सिंह बाकना, भाई परमानंद, रामदास, भगवानदास, करतार सिंह सराभा, एवं रघुवीर दयाल गुप्ता इस आंदोलन के सक्रिय नेता थे। गदर आंदोलन के क्रांतिकारियों द्वारा 'गदर' नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन '1857 के गदर' की स्मृति में किया गया। गदर पत्रिका का प्रारम्भ में उर्दू भाषा में प्रकाशन हुआ बाद मेंं इसका प्रकाशन गुरुमुखी, गुजराती एवं हिन्दी भाषा में भी हुआ। गदर दल ने अपना मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में खोला तथा यू.एस.ए. व कनाडा के कई शहरों में अन्य शाखाएं खोली गयीं। गदर दल के नेता एवं कार्यकर्ता भारतीय कृषक एवं सेना के भूतपूर्व सैनिक थे जो रोजगार की तलाश में यूएसए व कनाडा में बस गए थे उन्होंने गदर आंदोलन के माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवाद के इस सैद्धांतिक तर्क को गलत ठहराया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को आधुनिक समाज लायक बनाने का कठिन कार्य कर रही है। हा

कांग्रेस का प्रथम चरण- उदारवादियों का काल (1885-1905)

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कांग्रेस की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों का नेतृत्व उदारवादी नेताओं के द्वारा किया गया इसलिए इस काल को उदारवादी काल कहा जाता है। इसमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दानिश वाचा, व्योमेश चन्द्र बनर्जी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, रास बिहारी बोस, आर.सी.दत्ता, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, पी.आर. नायडू, आनंद चार्ल्स एवं पंडित मदनमोहन मालवीय प्रमुख थे।इनके द्वारा शांतिप्रिय एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शन करके ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी बातों को रखने पर बल दिया जाता था। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक उदारवादियों का कांग्रेस में वर्चस्व कायम रहा उसके बाद में उग्रवादी नेताओं का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उदय हुआ । उदारवादी नेताओं की नीतियां उग्रवादी नेताओं से एकदम प्रथक थींं।            उदारवादी नेताओं को यह विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों की वास्तविक समस्याओं से परिचित हैं और ये भारतीयों को शिक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें यह विश्वास था कि यदि सर्वसम्मति से सभी देशवासी प्रार्थना पत्रों,याचिकाओं और सभाओं के माध्यम से सरकार से अपनी मांगों को मनवाने का प्रयास करेंगे तो

फराजी आंदोलन Farazi movement

     फराजी आंदोलन का मुख्य उद्येश्य इस्लाम धर्म में सुधार करना था। इसे 'फराइदी आंदोलन' के नाम से भी जाना जाता था जिसकी शुरुआत पूर्वी बंगाल में 'हाजी शरियतुल्लाह' के द्वारा की गई थी। हाजी शरियतुल्लाह का मुख्य उद्येश्य इस्लाम धर्म के लोगों को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। परंतु शरियतुल्लाह की मृत्यु के पश्चात सन् 1840 ई० में इस आंदोलन का नेतृत्व उनके पुत्र दूदू मियाँ के द्वारा संभालने पर इस आंदोलन ने क्रांतिकारी रूप अख्तियार कर लिया। दूदू मिंया ने गांव से लेकर प्रांतीय स्तर तक प्रत्येक स्तर पर एक प्रमुख नियुक्त किया। इस आंदोलन में ऐसे क्रांतिकारियों का दल तैयार किया गया जिन्होंने हिन्दू जमींदारों एवं अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया।               दूदू मियां को पुलिस के द्वारा कई बार गिरफ्तार किया गया तथा इन्हें सन् 1847 ई० में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया जिससे आंदोलन नेतृत्वहीन हो गया।सन् 1862 ई० दूदू मिंया की मृत्यु के पश्चात आंदोलन मंद पड़ गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस-स्थापना एवं उद्येश्य

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स्थापना            ब्रिटिश शासन से त्रस्त होकर भारतीय जनता ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध अनेक विद्रोह किए परंतु उनके सफल न होने के कारण जनता में यह विश्वास जागृत हो गया कि कोई ऐसा संगठन खड़ा किया जाये जिसके माध्यम से अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज उठाई जा सके। इसके लिए राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं द्वारा सन् 1860 के दशक से ही संगठन स्थापित करने के प्रयास शुरू कर दिये गए थे परंतु इस कार्य को वास्तविक पटल पर लाने का कार्य ए.ओ. ह्यूम (एलन अॉक्टीवियन ह्यूम), ब्रिटिश सेना के एक सेवानिवृत्त अधिकारी के द्वारा किया गया।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को वायसराय लार्ड डफरिन के समय में हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस एवं दादा भाई नौरोजी जैसे नेताओं ने काफी सहयोग किया। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने सन् 1876 में इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। इंडियन एसोसिएशन के तत्वावधान में सन् 1883 में ' भारतीय राष्ट्रीय कांफ्रेंस ' का आयोजन हुआ। इसके दूसरे सम्मेलन का आयोजन सन् 1885 ई० में हुआ। सन् 1886 में ' भारतीय

थियोसोफिकल सोसायटी

         इस आंदोलन की शुरुआत दो पाश्चात्य बुद्धिजीवियों रुस की मैडम एच. पी. ब्लावैटस्की तथा कर्नल एच. एस. अल्काट ( यू.एस.ए.) के द्वारा की गयी जिसमें इनका सहयोग विलियम जज द्वारा किया गया। इन्होंने भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर 17 नवंबर 1875 को न्यूयॉर्क (यू.एस.ए.) में 'थियोसोफिकल सोसायटी' की शुरुआत की।सन् 1879 ई० में इन्होंने मुंबई में अपना कार्यालय खोला। सन् 1882 ई० में अपना मुख्य कार्यालय अमेरिका से मद्रास के निकट अड्यार नामक स्थान पर परिवर्तित कर दिया। सन् 1907 ई० में कर्नल अल्काट की मृत्यु के पश्चात श्रीमती एनी बेसेंट सोसायटी की अध्यक्ष चुनीं गई। एनी बेसेंट के अध्यक्ष बनने के पश्चात सोसायटी की लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई। श्रीमती एनी बेसेंट ने बनारस में हिन्दू स्कूल की स्थापना की। इस स्कूल में धर्म एवं पाश्चात्य वैज्ञानिक विषयों पर शिक्षा दी जाती थी। सन् 1915-16 मेंं मदनमोहन मालवीय जी के द्वारा बनारस हिन्दू स्कूल को बनारस हिन्दू महाविद्यालय में परिवर्तित कर दिया गया। थियोसोफिकल सोसायटी के अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को आत्मिक हर्षोन्माद एवं अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त करने क

सत्यशोधक समाज एवं ज्योतिबा फुले

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  ज्योतिबा फुले का जन्म सन् 24 सितंबर 1873 ई० को पूना के शूद्र माली जाति में हुआ था। उन्होंने सामाजिक न्याय एवं दलित उत्थान के अथक प्रयास किए। ज्योतिबाफुले जाति प्रथा के पूर्ण उन्मूलन एवं सामाजिक-आर्थिक समानता के पक्षधर थे। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की तथा ब्राह्मण वादी संस्कृत समाज का विरोध किया। सत्यशोधक समाज का मुख्य उद्येश्य सामाजिक सेवा तथा स्त्रियों एवं निम्न जाति के लोगों के बीच शिक्षा का प्रसार करना था। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रतीक चिन्ह 'राम' के विरोध में 'राजा बालि' को अपना प्रतीक चिन्ह बनाया। फूले के आंदोलनों के कारण समाज में दलितों का उत्थान हुआ तथा ब्राह्मणों का वर्चस्व समाप्त हो गया। उन्होंने ब्राह्मणों का वर्चस्व के कारण ही ' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का भी विरोध किया। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले की सहायता से पूना में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की तथा उन्होंने महाराष्ट्र में विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए कार्यक्रम प्रारम्भ किया। फुले की मृत्यु के पश्चात सत्यशोधक समाज की कमान छत्रपति शाहू ने संभाली। ज्योतिबा फुले द्वारा

ईश्वर चंद्र विद्यासागर

               बंगाल में जन्मे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का बचपन का नाम ईश्वर चन्द्र बंदोपाध्याय था।वे ऐसे उच्च नैतिक मूल्यों में विश्वास करते थे जो मानवता के लिए समर्पित तथा गरीबों के लिए उदार हों । ईश्वर चन्द्र विद्यासागर 1850 में संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य बने। उन्होंने संस्कृत पर ब्रहामणों के एकाधिकार को चुनौती देते हुए गैर-ब्राह्मणों को भी संस्कृत अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया तथा संस्कृत कालेज में आधुनिक दृष्टिकोण का प्रसार करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने संस्कृत भाषा का बंगाल में प्रसार करने के लिए बांग्ला भाषा में वर्णमाला भी लिखी।     विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह के लिए शसक्त आंदोलन चलाया। उन्हीं के प्रयासों से सन् 1856 ई० में तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने 'हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम,'XV' , पारित किया।उन्होंने स्वयं भी एक विधवा के साथ विवाह किया तथा अपने इकलौते पुत्र का विवाह भी एक विधवा के साथ किया।   1840 एवं 1850 के दशक में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से स्त्री शिक्षा के लिए शसक्त आंदोलन चलाये गये। सन्

कोलिय विद्रोह

कोलिय जाति के लोग महाराष्ट्र में मराठा पेशवाओं के दुर्गों के सैनिक के रूप में कार्य करते थे। अंग्रेजी साम्राज्य आ जाने के कारण दुर्गों को अस्त व्यस्त कर दिया गया जिससे ये लोग बेगार हो गये तथा अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करने लगे। वर्तमान महाराष्ट्र के पश्चिमी हिस्से एवं गुजरात के कच्छ छेत्र में कोलियों ने विद्रोह की आवाज बुलंद कर ली। सन 1824 ई० में सरदार गोविंद राव के नेतृत्व में विद्रोह की शुरुआत हुई।जिसे अंग्रेजों के द्वारा सन् 1825 में दबा दिया गया।फिर सन् 1839 ई० में पूना छेत्र के आसपास विद्रोह शुरू हुआ जो कि लगभग 1850 ई० तक चला।इस विद्रोह में प्रमुख  विद्रोही भाऊ सरे, चिमनाजी यादव,नाना दरबारे, रघु भंगारिया, बापू भंगारिया आदि ने समय-समय पर नेतृत्व किया।अन्य आंदोलनों के विद्रोहियों ने भी सहयोग किया।

आर्य समाज एवं दयानंद सरस्वती

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       आर्य समाज हिन्दू धर्म का एक सुधारवादी आंदोलन था।इसके संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी थे। महर्षि दयानंद सरस्वती का बचपन का नाम मूलशंकर था।ये सत्य की तलाश में 15 वर्ष इधर उधर भटकते रहे तथा वेदांत की शिक्षा मथुरा के अंधे गुरु स्वामी विरजानंद से प्राप्त की। इन्होंने वेदों को सच्चा तथा सभी धर्मों से हटकर बताया। इन्होंने कहा कि वेद भगवान द्वारा प्रेरित हैं और सम्पूर्ण ज्ञान का श्रोत हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना 29 जनवरी 1875 में की थी तथा दूसरी शाखा की स्थापना 1877 ई० में की। इन्होंने वेदों की शिक्षा को सम्पूर्ण मानकर हिन्दू धर्म में कुरीतियों को अस्वीकार करके अपने अनुयायियों को वैदिक धर्म के पालन का निर्देश दिया।       महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा माना तथा सर्वप्रथम स्वराज शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके, स्वदेशी अपनाने पर जोर दिया। महर्षि दयानंद सरस्वती जी को ' भारत का मार्टिन लूथर' कहा जाता है। इन्होंने नारा दिया , 'भारत भारतीयों के लिए' एवं 'वेदों की ओर लोटो'  इनका प्रशि

यंग बंगाल आन्दोलन एवं हेनरी विवियन डेरोजियो

19 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में बंगाल के बुद्धिजीवियों में उग्र एवं आधुनिक प्रवृति का जन्म हुआ। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों का तीव्र विरोध किया। इस आंदोलन को 'यंग बंगाल आंदोलन' के नाम से जाना जाता है। इसकी शुरुआत कलकत्ता के हिन्दू कालेज के प्राध्यापक( 1826-1831) अॉग्ल-भारतीय, हेनरी विवियन डेरोजियो ने की थी। हेनरी विवियन डेरोजियो फ्रांस की क्रांति से प्रभावित थे, अतिवादी विचार रखते थे। उन्होंने रूढिवादी एवं पुराने रीतिरिवाजों का विरोध किया।        हेनरी ने 'बंगाल स्पेक्टेटर' नामक् पत्रिका का संपादन किया। आध्यात्मिक उन्नति और समाज सुधार के लिए उन्होंने ' एकेडमिक एसोसिएशन', 'सोसायटी फॉर एक्वीजिशन अॉफ जनरल नॉलेज', 'एग्लो- इंडियन हिन्दू एसोसिएशन', 'बंगहित सभा' और 'डीबेटिंग क्लब' आदि का गठन किया। कट्टर हिंदुओं के विरोधस्वरूप हेनरी को हिन्दू कालेज से निकाल दिया गया। इसके बाद हेनरी ने 'ईस्ट इंडिया' नामक् दैनिक समाचार पत्र का संपादन किया।हेनरी को आधुनिक भारत का 'प्रथम राष्ट्रवादी कवि' कहा जाता है।  हेनहरी

राजा राममोहन राय

ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में उपनिवेश स्थापित हो जाने के बाद भारत में भी तर्कवाद, मानवतावाद और विज्ञानवाद की धारणाओं ने 'पुनर्जागरण' की प्रिक्रिया को आरम्भ किया। उन्हीं में एक प्रमुख नाम है राजा राममोहन राय का इन्होंने पुरानी मान्यताओं ओर अंधविश्वासों को त्याग कर नयी मान्यताओं को अपनाने पर बल दिया।      राजा राममोहन राय को 'आधुनिक पुरूष', 'पुनर्जागरण का मसीहा', 'आधुनिक भारत का निर्माता', 'भारतीय छितिज का सबसे चमकदार तारा' और 'भारतीय राष्ट्रवाद का पैगम्बर' के उपनाम से जाना जाता है। राजा राममोहन राय ईस्ट इंडिया कंपनी में कर संग्राहक के पद पर कार्यरत थे परन्तु उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं कुरीतियों को देखकर अपनी नोकरी त्यागकर भारतीय समाज के उत्थान में जुट गए। उन्हें राजा की पदवी मुगल बादशाह अकबर द्वितीय के द्वारा प्रदान की गई। कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष      राजा राममोहन राय ने सभी धर्मों को एक ईश्वर का मूर्त रूप माना। उन्होंने प्राचीन वेदों का उदाहरण देते हुए एकैश्वरवाद के सिद्धांत को माना। एकैश्वरवाद के प्रचार के ल

सम्भलपुर का विद्रोह

उड़ीसा प्रांत के सम्भलपुर में गोंड जनजाति में उत्तराधिकार के प्रश्न पर मतभेद होने के कारण अंग्रेजों के द्वारा हस्तक्षेप किया गया जिससे असंतुष्ट होकर वहां पर 1833 ई० में विद्रोह की शुरुआत हुई परन्तु ब्रिटिश शासन ने विद्रोह को दबा दिया। उसके बाद सन 1839 ई० मे सुरेंद्र सांईं के नेतृत्व में आंदोलन की दोबारा शुरुआत हो गई और विद्रोह बहुत जोरदार तरीक़े से हुआ। सुरेंद्र सांई के नेतृत्व में 1857 के विद्रोह में भी भाग लिया गया उन्होंने वहा समानांतर सरकार चलाकर विरोध किया। इस कार्य में स्थानीय जमींदारों ने भी उनका साथ दिया। सन 1862 ई० में सुरेंद्र सांई ने आत्मसमर्पण कर दिया जिससे यह आंदोलन कमजोर होता चला गया।

1857 का विद्रोह

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भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हुए आंदोलनों में 1857 की क्रांति का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 के विद्रोह को ही माना जाता है। विद्रोह का तात्कालिक कारण              1857 कै विद्रोह की शुरुआत के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सैनिकों पर अपनायी गयी नीतियां जिम्मेदार हैं।ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सैनिकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था।भारतीय सैनिक चाहे जितनी सेवा निष्ठा से ड्यूटी करते थे परन्तु उन्हें जमादार के पद से ऊपर न तो प्रोन्नत किया जाता था और न ही उनके वेतन,भत्ते आदि सुविधाएं ब्रिटिश सैनिकों के समान मिलते थे।भारतीय सैनिकों का वेतन उनके परिवार के पालनपोषण के लिए अपर्याप्त था इसलिए उन्हें अपने परिवार के जीवनयापन के लिए खेती-बाड़ी पर भी निर्भर रहना पड़ता था परंतु उन्हें भू-लगान में किसी भी प्रकार की छूट नहीं दी जाती थी। जिससे उनमें असंतोष व्याप्त था अर्थात भारतीय सैनिक एक प्रकार के असंतुष्ट 'वर्दीधारी किसान' ही थे।भारतीय सैनिक सभी प्रकार के भेदभाव एवं असमानताओं को झेलते हुए भी अपनी सेवा निष्ठा भ

रामोसिस विद्रोह

रामोसी विद्रोह की शुरुआत पश्चिमी महाराष्ट्र के पूना में रामोसिस द्वारा की गई जोकि मराठा साम्राज्य के समय में पुलिस विभाग में कार्यरत थे परंतु ब्रिटिश शासन आ जाने के कारण इनकी सेवाएं समाप्त हो गयीं थीं। जिस कारण ये लोग बेरोजगार हो गए थे तथा अंग्रेजों ने इनकी जमीनों पर लगान की दर काफी बढा दी थी। ऐसे में सन 1822 ई० में अकाल पड़ने के कारण ये लोग भुखमरी की समस्या से जूझने लगे। फलतः रामोसिस ने 'चित्तूर सिंह' के नेतृत्व में सतारा के आसपास के छेत्रों को लूटा एवं वहां के किलों पर चढाई कर दी। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया परन्तु 1825 -26 ई० में फिर से अकाल पड़ने पर यह आँदोलन फिर से भड़क उठा और इस बार विद्रोह का नेतृत्व का जिम्मा 'उमाजी' ने संभाला । 1829 ई० तक यह आंदोलन तीव्र गति से चलता रहा फिर 1841 ई० तक यह विद्रोह पूर्णतया समाप्त हो गया।

त्रावणकोर का विद्रोह ( वेलू थम्पी का विद्रोह)

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 1857 के सिपाही विद्रोह से पूर्व में त्रावणकोर का विद्रोह एकमात्र ऐसा विद्रोह था जिसे 'राष्ट्रीय संघर्ष' का दर्जा दिया गया। त्रावणकोर प्रारम्भ में ब्रिटिश शासन का मित्र राज्य था तथा इसने मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के विरुद्ध ब्रिटिश कंपनी का सहयोग किया था परंतु कंपनी के साम्राज्य विस्तार की नीति को देखते हुए यहाँँ के योग्य मंत्री 'वेलू थम्पी' ने 1808 में घोषणा की यदि 'हमने ब्रिटिश कंपनी का विरोध नहीं किया तो हमारी प्रजा को असहनीय कष्टों का सामना करना पड़ेगा'। इसके फलस्वरूप हजारों हथियारबंद बंद लोग वेलू थम्पी के साथ आ गए। इस आँँदोलन का नेतृत्व 'वेलू थम्पी' ने किया इसलिए इसे ' वेलू थम्पी का विद्रोह' भी कहा जाता है। थम्पी ने अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों से सहायता मांगी परन्तु इन देशों ने इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया।इसी प्रकार पड़ोसी राज्य कोचीन के मंत्री पालियाथ आचन ने भी थम्पी को धोखा दे दिया जिसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सेना ने  1809 ई० में त्रावणकोर में काफी अन्दर तक चढाई कर दी। इसे देखकर  वेलू थम्पी ने आत्महत्या कर ली परंत

संन्यासी विद्रोह

संन्यासी विद्रोह की शुरुआत 1770 में उत्तरी बंगाल से हुई थी। 1757 के प्लासी के युद्ध एवं उसके पश्चात 1764 के बक्सर के युद्ध के पश्चात बंगाल पर ब्रिटिश शासन की पकड़ मजबूत हो गई थी जिसके फलस्वरूप बंगाल के भूमिहीन किसानों व दस्तकारों का शोषण किया जाने लगा । साथ ही साथ तीर्थ यात्रियों के तीर्थ स्थलों पर यात्रा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया जोकि इस आंदोलन का प्रमुख कारण बना।संन्यासी लोग हिन्दू नागा तथा गिरी के सशस्त्र संन्यासी थे जो पूर्व में सेनाओं में सैनिक थे। संन्यासियों ने अंग्रेजों से बलपूर्वक धन वसूला तथा अंग्रेजी फैक्टरियों पर लूटपाट की इस कार्य में किसानों व दस्तकारों ने संन्यासियों का पूरा साथ दिया। इस आंदोलन में हिन्दू मुस्लिम एकता नजर आई। मंजर शाह,भवानी पाठक,मूसा शाह व देवी चौधरानी आदि प्रमुख आंदोलनकारी थे।यह आंदोलन मुख्य रूप से 1770 ई० में शुरू होकर 1800 ई० तक चला परंतु पूर्णतया 1820 में जाकर समाप्त हुआ।आदोलन के विरूद्ध अंग्रेजों ने दमन की नीति का सहारा लिया। संन्यासी विद्रोह का विस्तृत वर्णन श्री बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा 'आनन्द मठ' नामक् पुस्तक में दिया गया है।

संथाल विद्रोह

इस आंदोलन की शुरुआत सन् 1855-56 ई० में बिहार के भागलपुर छेत्र के स्थानीय जमींदारों, महाजनों एवं अंग्रेजी कंपनी के कर्मचारियों के द्वारा किए जा रहे शोषण के विरोध स्वरूप हुई। आंदोलन का नेतृत्व कान्हु व सिद्धु नामक दो सगे भाइयों के द्वारा किया गया। संथाल जनजाति के लोग राजमहल की पहाड़ियों में रहते थे।ये लोग जीवनयापन के लिए पहाड़ों में घास-जलाकर खेतीबाड़ी करते थे तथा पशुपालन करते थे परन्तु पहाड़ों में सीमित संसाधन होने के कारण ये लोग निकटवर्ती मैदानी क्षेत्रों में लूटपाट भी करते थे और पहाड़ से गुजरने वाले रास्तों पर पथकर लगाकर जीवनयापन करते थे। लेकिन जब 1770 में कंपनी शासन द्वारा पहाड़ों को उजाड़कर खेतीबाड़ी योग्य भूमि की कमी हो गई और जमींदार व साहूकारों द्वारा धन की उगाही लगातार की जाती रही तो ऐसे मेंं इन लोगों को जीवनयापन में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अंततः इन्होंने जमींदारों व साहूकारों के विरुद्ध विद्रोह का मोर्चा खोल दिया जो आगे चलकर अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसक हो गया। अंग्रेजों ने इसे निर्ममता पूर्वक दबा दिया।

यूपी पुलिस कांस्टेबल भर्ती का पैटर्न

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                    यदि आप यूपी पुलिस कांस्टेबल 2018 की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आपको यह ज्ञात होगा कि यह परीक्षा टी०सी० एस० नामक् ऐजेंसी करायेगी जो कि पूर्व में भी उत्तर प्रदेश में परीक्षाएं करा चुकी है अतः उसी को ध्यान में रखते हुए मैं आपको उत्तर प्रदेश राजस्व लेखपाल परीक्षा 2015 के प्रश्न पत्र की सामान्य ज्ञान के प्रशन उपलब्ध करा रहा हूँँ जिससे आपको कम्पनी द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नो के लेवल का अनुमान लग सकें।   सामान्य जानकारी (1) लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार बनने के लिए न्यूनतम आयु सीमा कितनी है (A) 20 वर्ष।      (B) 30वर्ष (C ) 25 वर्ष।    (D) 18 वर्ष (2) हमारे रुधिर मे आक्सीजन का परिवहन एक प्रोटीन के द्वारा होता है, उसका नाम है- (A) किरोटीन (B) कोलैजन (C) मायोग्लोबिन (D) हीमोग्लोबिन (3) 16 अगस्त1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाया गया था- (A) इसाई लीग द्वारा (B) हिन्दू लीग द्वारा (C) मुस्लिम लीग द्वारा (D) सिख लीग द्वारा (4) चौरा-चौरी की घटना कब हुई? (A) 5 may 1922 (B) 13 march 1922 (C) 5 February 1922 (D) 3 March 1922 (5)

फकीर विद्रोह

इस आंदोलन की शुरुआत 18 वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बंगाल में हुई। बंगाल का ब्रिटिश शासन द्वारा विलय करने पर वहां के घूमन्तू फकीर समुदाय द्वारा इसका विरोध किया गया। विरोध स्वरूप 1776-77 ई० में मजनूम शाह के नेतृत्व में फकीर विद्रोहियों ने स्थानीय किसानों व जमींदारों से धन की वसूली प्रारंभ कर दी । इस कार्य में बंगाल के पठानों, राजपूतों तथा सेना के पूर्व सैनिकों ने फकीरों को सहयोग दिया तथा भवानी पाठक व देवी चौधरानी जैसे हिन्दू नेताओं ने बढ चढकर हिस्सा लिया। मजनूम शाह की मृत्यु के बाद आंदोलन की बागडोर चिराग अली शाह ने संभाली।यह आंदोलन 19 वी शताब्दी के प्रारंभ तक चला परंतु ब्रिटिश सेना द्वारा 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में कठोरतापूर्वक दबा दिया गया।

कूका आंदोलन

इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिमी पंजाब में जवाहरमल भगत (सियान साहिब) एवं उनके शिष्य बालक सिंह ने की थी। कूका आंदोलन के तहत सिख धर्म में व्याप्त बुराइयों एवं अंधविश्वास को समाप्त करने के लिए यह धार्मिक आंदोलन चलाया गया था। इसके तहत इन्होंने मदिरापान, मांस का सेवन, नशीले पदार्थों का सेवन एवं पर्दाप्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया तथा अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया। प्रारम्भ में यह आंदोलन धार्मिक था परंतु पंजाब की सत्ता अंग्रेजों द्वारा हस्तगत किये जाने पर यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया। अत: अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाना शुरू कर दिया जिसके तहत आंदोलन के प्रमुख क्रांतिकारी नेता राम सिंह को 1872 में रंगून निर्वासित कर दिया गया वहां उनकी 1885 में हो गयी । इस प्रकार यह आंदोलन समाप्त हो गया।

चेरो विद्रोह

यह विद्रोह स्थानीय राजाओं एवं अंग्रेज कम्पनी दोनों के विरुद्ध था जोकि बिहार में सन् 1800 ई० मेंं बिहार के जमींदार वर्ग चेरो जनजाति के लोगों की जमीनें छीनने के विरुद्ध था। इस आंदोलन का नेतृत्व भूषण सिंह नामक जमींदार ने किया।