चम्पारण आंदोलन- गांधी जी का प्रथम सत्याग्रह (Champaran Satyagraha)



चंपारण आंदोलन गांधी जी का भारत में प्रथम आंदोलन था।यह आंदोलन बिहार के चंपारण जिले में अंग्रेज जमींदारों द्वारा किसानों की जमीन का 3/20 भाग नील की खेती के लिए आरक्षित रखने के खिलाफ सन् 1917 में हुआ। यह व्यवस्था ' तिनकठिया प्रथा ' कहलाती थी।19 वीं सदी के आरंभ में अंग्रेज बागान मालिकों ने बिहार के किसानों से अनुबंध के तहत नील की खेती के लिए बाध्य किया। यूरोप में कैमिकल द्वारा तैयार कृत्रिम नील आ जाने से भारतीय नील सस्ता हो गया जिससे भारतीय किसानों की आय बहुत कम हो गयी और जमींदारों का कर्ज उनपर बढता गया। बिहार के किसान नेता राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी को चंपारण आकर तिनकठिया प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने के लिए आमंत्रित किया। फलत: गांधी जी, राजेंद्र प्रसाद,ब्रज किशोर, मजहर-उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि पारिख, जे० बी० कृपलानी एवं अनुग्रह नारायण सिंह आदि के सहयोग से चंपारण में किसानों की समस्याओं को देखने पहुंचे। गांधी जी को बिहार प्रशासन ने चंपारण से वापस चले जाने का आदेश दे दिया। गांधी जी ने इस आदेश को अस्वीकार करते हुए किसी भी दंड को भुगतने के लिए तैयार हो गये तथा उन्होंने अहिंसात्मक विरोध का मार्ग चुना। इस आंदोलन में गांधी जी ने भारत में प्रथम बार सत्याग्रह का प्रयोग किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध दृढ़ता से आंदोलन किया। अंततः अंग्रेजी सरकार ने गांधी जी को चंपारण के गांवों का दौरा करने की छूट प्रदान कर दी।अंग्रेजी सरकार ने एक कमेटी का गठन करके गांधी जी को उसका सदस्य बना दिया। गांधी जी द्वारा प्रस्तुत मांगों को ब्रिटिश सरकार ने मान लिया तथा बागान मालिकों द्वारा वसूले गए धन का 25% भाग किसानों को वापस लौटा दिया गया। एक दशक में बागान मालिकों ने यह छेत्र छोड़ दिया।

क्या थी नील की खेती ?

नील का पौधा मुख्य रूप से उष्ण कटिबंधीय छेत्रों में ही उगता है। यूरोपीय कपड़ा उत्पादक कपड़े को रंगने के लिए भारतीय नील को पसंद करते थे। ब्रिटेन में औद्योगिकीकरण का दौर प्रारंभ हो चुका था और उसके कपास उत्पादन में भारी वृद्धि  हुई। अब कपड़ों की रंगाई की मांग तेजी से बढ़ने लगी।
नील की खेती के मुख्यत: दो तरीके प्रचलित थे- निज खेती और रैयती व्यवस्था।
निज खेती की व्यवस्था में बागान मालिक खुद अपनी जमीन में नील का उत्पादन करते थे। परंतु अत्यधिक लागत लगने के कारण यह विधि लोकप्रिय नहीं थी।
रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक रैयतों के साथ एक अनुबंध करते थे। जो अनुबंध पर हस्ताक्षर कर देते थे उन्हें नील उगाने के लिए कम ब्याज दर पर बागान मालिकों से नकद ऋण मिल जाता था। अनुबंधित रैयत को अपनी कम-से-कम 25% भूमि पर नील की खेती करनी होती थी। जब कटाई के बाद फ़सल बागान मालिक को सौंप दी जाती थी तो रैयत को नया ऋण मिल जाता था और वही चक्र दोबारा प्रारंभ हो जाता था। किसान को नील का जो मूल्य दिया जाता था वह बहुत कम था और ऋण का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता था।

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